♦इस खबर को आगे शेयर जरूर करें ♦

खिसियाए लोग और चौथा खंभा; किसे है फ्री और फियरलेस प्रेस की चिंता!

खिसियाए लोग और चौथा खंभा; किसे है फ्री और फियरलेस प्रेस की चिंता!

 

The Narrative Post By आचार्य एस. के. भंवर

संविधान के प्रावधानों से इतर लोकमानस में चौथे स्तंभ के तौरपर स्थापित प्रेस आज भी अन्य स्तंभों से ज्यादा विश्वसनीय, सहज और सुलभ है। समस्याओं से घिरा आम आदमी सबसे पहले अखबार के दफ्तर में जाकर फरियाद करता है। थाने, दफ्तरों और भी सरकरी गैर सरकारी जगहों में जब वह दुरदुराया जाता है तो उसका आखिरी ठिकाना भी प्रेस का ही दफ्तर होता है। यह छपे हुए शब्दों की ताकत है जो प्रेस को तमाम लानतों मलानतों के बावजूद प्रभावी बनाए हुए है।

बहुत सी धारणाओं की स्थापना लोकमानस के जरिये होती है। जैसे प्रेस का मतलब आज भी अखबार और पत्रिकाएं हैं न कि टीवी चैनल और बेव पोर्टल। इसलिए प्रेस के समानांतर ‘मीडिया’ के नाम को चलाने के जतन शुरू हुए लेकिन प्रेस शब्द का रसूख कायम है। इस शब्द को अभी भी ऐसा उच्च सम्मान प्राप्त है कि अपराधी भी प्रायः इसे ढाल की तरह इस्तेमाल करने लगते हैं। कमाल की बात है कि जिस .प्रेस. शब्द को भारतीय संविधान ने अपने पन्नों में भी जगह नहीं दी उसे लोकमानस ने आगे बढ़कर सिरोधार्य किया।

अस्सी के दशक के शुरुआती वर्षों में जब टेलीविजन आया तो लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया कि अखबारों के दिन गए। प्रेस के भविष्य पर गंभीर चर्चाएं शुरू हुईं। लेकिन टीवी का आना फायदे का ही साबित हुआ। अखबार ज्यादा सतर्क हुए। रंगीन होने का दौर शुरू हुआ। लेआउट्स और प्रोडक्शन की दृष्टि से क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। बड़े घरानों से लेकर मध्यम दर्जे तक के अखबार प्रतिष्ठानों में आर एंड डी( रिसर्च एन्ड डवलपमेंट) के विभाग खुले।

अस्सी के दशक को आप प्रेस का सुनहरा दौर कह सकते हैं। खुफिया कैमरे, और बटन रिकार्डर नहीं थे फिर भी एक के बाद एक सनसनीखेज खोजी रिपोर्ट्स आईं जिनकी नजीर आज भी दी जाती है। अंतुले सीमेंट घोटाला कांड का परदाफाश हुआ, इसके बाद खोजी खबरों की झड़ी सी लग गई। सबसे बड़ा धमाका 86-87 में बोफोर्स का हुआ।

रविवार, दिनमान,माया, इलुस्ट्रेटेड वीकली, साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग जैसी पत्रिकाएं दैनिक अखबारों से लोहा लेने लगी। अखबार और पत्रिकाओं में आगे निकलने की कड़ी स्पर्धा शुरू हुई। इस दशक में रिकॉर्ड तोड़ पाठक बढ़े और उसी हिसाब से नए अखबार और जमे-जमाए अखबारों के संस्करण। दूरदर्शन काला-सफेद से रंगीन हुआ। दर्शक जीवंत खबरें देखने लगे। टीवी अखबारों के लिए कैटलिस्ट साबित हुआ। पढ़ने की भूख जगी।

प्रेस पर पाठकों की कृपा है, ये इज्जत, शोहरत, ताकत लोक की वजह से है सरकार की वजह से नहीं, यह बात अच्छे से समझ लेना चाहिए।

छपे हुए शब्द आज भी सबसे ज्यादा विश्वसनीय और खरे हैं। हाल ही की एक सर्वे रिपोर्ट बताती है कि पाठकों का भरोसा मुद्रित माध्यमों के प्रति और बढा है। 1990 के बाद निजी क्षेत्र के चैनल आए। खबरों की बड़ी.स्पर्धा शुरू हुई। विदेशी चैनलों के लिए भी दरवाजे खोल दिए गए। एक बार फिर इस जनसंचार क्रांति से ऐसा लगा कि अखबार और पत्रिकाओं का भट्ठा बैठ जाएगा। कुछ शुरुआती असर दिखा भी लेकिन लोकमानस में चैनल्स खबरों को लेकर अपनी छाप नहीं छोड़ पाए, जबकि ये ऐसे माध्यम हैं कि खबरेंं जीवंत दिखती हैं।

सर्वे ये बताते हैं कि चैनल्स अखबारों के हित में ही रहे। खबरों की भूख बढ़ाने का काम किया अखबार और भी गंभीरता से पढ़े जाने लगे। प्रसार के हर साल जारी होने वाले आँकड़े बताते हैं कि अखबारों के प्रसार का दायरा दिनोदिन बढ़ता ही जा रहा है।

अब आते हैं प्रेस की स्थिति पर। प्रेस की इस महत्ता ने हर क्षेत्र के व्यवसाइयों को अपनी ओर खींचा है। बिल्डर,चिटफंडिये,खदानों और शराब का ठेका चलाने वाले, राजनीति में रसूख जमाने की लालसा रखने वाले नवकुबेर, प्रेस ने सभी को लुभाया।

एक बड़े व्यापारी ने सच्चा किस्सा बताया- मैं एक हजार कऱोड़ के टर्न ओवर वाला व्यापारी किसी काम से बल्लभभवन गया पीएस से मिलने। चार घंटे बैठे रहने के बाद भी मेरा नंबर नहीं आया जबकि विधिवत् अपाइंटमेंट ले रखा था। कुछ लोग आते सीधे चैम्बर में घुस जाते। मैंने पूछा ये कौन लोग हैं? चपरासी ने बताया कि ये प्रेस वाले हैं। तभी मेरे दिमाग में आया कि क्यों न हम भी प्रेस शुरू कर दें। उक्त व्यवसायी ने अखबार शुरू कर दिया। अच्छे पत्रकारों को नौकरी में रख लिया फिर हुआ यह कि जो कभी चार घंटे पीएस का इंतजार करते बैठा करता था उसके ही दफ्तर उस पीएस के मंत्री और यहां तक कि मुख्यमंत्री भी आने लगे।

ऐसे लोगों के लिए अखबार व्यवसाय का कवच और विजिटिंग कार्ड बन गया। यहीं से एक मुगालता और शुरू हुआ कि ऐसे व्यवसायी जो अखबार के मालिक बन गए, ने सोचा क्यों न अखबार के दम पर उल्टीसीधी फाइलें ओके करवा ली जाएं यानी कि अखबार को कट्टे की तरह इस्तेमाल करने की कोशिशें हुईं। प्रेस को जब आप प्राँस बनाएंगे तो प्रेस की आत्मा वहीं शरीर छोड़कर भाग जाएगी। एक मित्र गिनती लगाकर बता रहे थे कि कोई दो दर्जन से ज्यादा ऐसे अखबार और चैनलों के मालिक हैं जो जेल की हवा खा रहे हैं। कईयों के यहां ऐसे छापे पड़े कि वे अबतक सँभल नहीं पा रहे हैं।

कहने का आशय यह कि प्रेस को पेशेवराना अंदाज से ही चलाया जा सकता है इसलिये मीडिया के पुराने घराने ही इस मैंदान में कायम हैं। वे वो हर तिकड़म जानते हैं कि कैसे उनका रसूख भी कायम रहे और मीड़िया का धंधा भी चलता रहे। 1966 में प्रेस कौंसिल आफ इंडिया के गठन के बाद अखबारों में काम करने वालों के हित में कई वेजबोर्ड बने। तीस साल से बछावत, बेजबरुआ और मजीठिया का नाम सुन रहे हैं, शायद ही किसी मीड़िया घराने ने ईमानदारी से इनकी सिफारिशें लागू की हों। ये सभी बोर्ड सुप्रीम कोर्ट के माननीय जजों की अध्यक्षता में बने। इन दिनों मजीठिया की सिफारिशों को लागू करने पर जोर है।

प्रायः सभी बड़े मीडिया समूहों ने इसका रास्ता निकाल लिया। अपनी ही आउटसोर्स कंपनियां बना लीं और पत्रकारों को नौकरी छोड़ने या आउटसोर्स कंपनी में काम करने का विकल्प रखा। मजबूरी में पत्रकार ने इसे स्वीकार कर लिया। अभी कुछ दिन पहले दिल्ली के एक बड़े मीडिया समूह से निकाले गए एक पत्रकार की लावारिस मौत सुनकर दहल गया। वह न्याय को लेकर लड़ाई लड़ रहा था। व्यवस्था ने साथ नहीं दिया।

आज की तारीख में सबसे कच्ची नौकरी पत्रकारों की है। वे कल किस वक्त निकाल बाहर कर दिए जाएं इसका पता नहीं। अखबारों में दूसरों के शोषण की बात करने वाला खुद कितना शोषित है कि इसका जिक्र तक नहीं कर सकता। बड़े अखबारों में इस बात की घोषित मनाही है कि वह पत्रकारों की यूनियन से नहीं जुड़ेगा। पत्रकारों की यूनियनें बँटी हुई हैं। श्रम कानूनों को सरकारों ने ही बधिया बनाके रखा है। सो पत्रकार जो दुनिया की नजरों में बड़ा क्रांतिकारी है, घुट घुटकर मरता है।

आँचलिक पत्रकारिता की तो और दुर्गति है। पहले अखबार मालिक उन्हें उतनी ही गंभीरता से लेते थे जैसे बस मालिक अपने.कंडक्टर को। अब तो स्थित यह है कि मामूली से वेतन और विग्यापन के भारी टारगेट के आधार पर ब्यूरो खोले जाते हैं और जो बैठता है खुद को चीफ कहवा कर ही साँत्वना दे लेता है। इस प्रक्रिया में अपराधियों का तबीयत से पत्रकारीकरण हो गया है। चैनल्स के क्षेत्रीय संवाददाताओं की स्थिति तो और भी गई गुजरी है। इनके हितों की रक्षा कौन करे.? प्रेस कौंसिल.

प्रेस कौंसिल को 1966 में प्रेस के हितों की रक्षा व उन्हें मर्यादित करने के लिए गठित किया गया था। चूँकि 16 नवंबर से उसने काम करना शुरू किया था।इसलिए इस दिन को राष्ट्रीय प्रेस दिवस घोषित कर दिया। इसके अध्यक्ष अमूमन सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज होते हैं। इस संस्था को प्रेस का .वाँचडाग.. कहा जाता है। लेकिन इसके रहते ही वो पत्रकार न्याय माँँगते हुए बाराखंभा रोड के फुटपाथ में मर गया। यह संस्था कुछ नहीं कर पाई। वह इसलिए कि जिस तरह के अधिकार बार कौंसिल, मेडिकल कौंसिल,टेक्निकल कौंसिल को मिले हैं वैसे अधिकार प्रेस कौंसिल के पास नहीं है।

प्रेस कौंसिल यह भी तय नहीं कर सकता कि किसे पत्रकार कहा जाए किसे नहीं। सबसे बड़ा झगड़ा यह है कि टीवी और डिजिटल मीडिया को प्रेस क्यों माना जाए..! और माना जाए तो प्रेस कौंसिल ने उसे किस तरह परिभाषित किया है इसपर कभी कोई गंभीर विमर्श नहीं हुआ। इसबीच समानांतर मीडिया की भी बात हाशिए से मुखपृष्ठ पर आ गई। फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग ने वाशिंगटन की जार्जटाउन यूनिवर्सिटी के एक व्याख्यान में कहा कि सोशल मीडिया अब दुनिया का पाँचवाँ स्तंभ है। यह बात भारत के संदर्भ में और भी महत्वपूर्ण हो जाती है उसकी वजह यह कि यहां अमेरिका की तरह संविधान में प्रेस को परिभाषित नहीं किया गया है। इसलिए अभिव्यक्ति की आजादी का उपभोग हर वह व्यक्ति एक पत्रकार के तौरपर कर सकता है जिसके पास अभिव्यक्ति के तकनीकी माध्यम हैं।

सोशल मीडिया ऐसा ही माध्यम है। हम कह सकते हैं कि आज की तारीख में देश में जितने एँड्रायड फोन धारक हैं और नेट तथा सोशलमीडिया का उपभोग करते हैं वे सबके सब पत्रकार हैं। आप देख भी रहे होंगे कि फेसबुक और व्हाट्सएप में ब्रेकिंग न्यूज़ आ रही हैं। जिनका वास्ता टीवी या अखबारों से नहीं है वे भी अच्छे विश्लेषण पोस्ट कर रहे हैं। उनके पास भी इनवेस्टगेटिव रिपोर्ट है। कभी-कभी तो मुख्यधारा की मीडिया ही सोशल मीडिया का पिछलग्गू लगता है।

यह ठीक बात है की सोशलमीडिया ने अखबार वालों की लठैती पर बंदिश लगाई है..या उनके मुकाबले लठ्ठ लेकर खड़े हो गए हैं। सोशलमीडिया के साथ बड़ा खतरा दोधारी तलवार सा है। यदि ये मीडिया के भीतर या समानांतर हैं तो इनको नियंत्रित करने के लिए कोई संस्था नहीं। प्रेस कौंसिल भी नहीं। प्रेस कौसिल तो ऐसा नखदंत विहीन वाँचडाग है जो सिर्फ भोंक सकता है इससे ज्यादा कुछ नहीं। अखबार मालिकों पर ऐसे भोंकने वालों का कभी असर नहीं पड़ा। हमारे संविधान निर्माताओं ने प्रेस के साथ ज्यादती की है। प्रेस को अभिव्यक्ति का उतना ही अधिकार है जितना कि एक आम नागरिक का। इस तरह हर व्यक्ति पत्रकार है जो अभिव्यक्ति की आजादी का इस्तेमाल करता है। भारत में पत्रकार कोई संवैधानिक शब्द नहीं है।

अमेरिका, यूरोप में ऐसी स्थिति नहीं है। वहां प्रेस संविधान के अनुच्छेद में है और उसकी स्वतंत्राता को चुनौती नहीं दी जा सकती। अमेरिकी पत्रकार सैमूरहर्ष ने मोरारजी को सीआईए का एजेंट लिखा। मोरारजी ने इसपर मुकदमा कायम किया। अमेरिकी अदालत ने बर्डन आफ प्रूफ का जिम्मा मोरारजी पर छोड़ दिया। सरकार इंदिरा जी की थी। मोरारजी को सरकार ने ऐसे दस्तावेज नहीं उपलब्ध कराए कि वे खुद को निर्दोष साबित कर सकें। सैमूरहर्ष जानते थे कि मोरारजी पर दोष नहीं निकलेगा। फिर भी मोरारजी कुछ नहीं कर पाए।यह कलंक लिए हुए ही मरे।

हमारे यहां इसकी उलट स्थिति है। क्योंकि पत्रकार की औकात सामान्य नागरिक से ज्यादा कुछ भी नहीं। पत्रकार पर मुकदमा लगता है तो उसे साबित करना होता है कि जो हमने लिखा वो ठीक लिखा। सो प्रेस की आजादी और सुरक्षा की बात करनी है तो संविधान संशोधन कर प्रेस को संविधान के दायरे में लाया जाए। उसका अलग अनुच्छेद बने। और लिखा जाए की प्रेस की स्वतंत्रता को चुनौती नहीं दी जा सकती। वकील,डाक्टर की तरह पत्रकार की न्यूनतम योग्यता तय की जाए। तभी हम भविष्य के प्रेस का कुशल मंगल देख सकते हैं। वरना कितने भी कानून आएं,आयोग और बोर्ड बनें, हर साल राष्ट्रीय प्रेस दिवस मनाएं कुछ होना जाना नहीं है।

पत्रकारिता का स्वरुप (कल, आज और कल)

पत्रकारिता कई बदलावों से गुज़री है, जबकि पत्रकारिता की अभिव्यक्ति का मूल हमेशा मौजूद रहा है। अपने परिश्रम के साथ एक माध्यम से दूसरे माध्यम में विकसित होते हुए वर्तमान की पहचान बनाई है, छपाई से लेकर आगे तक का सफर इसी कड़ी का हिस्सा है। पत्रकारिता हमारे समुदायों का बुनियादी ढांचा है, था और हमेशा रहेगा। जैसे-जैसे सोशल मीडिया का प्रचलन बढ़ रहा है, पत्रकारिता एक और नया रूप लेती जा रही है।

कल की पत्रकारिता : इतिहास पर नजर ड़ालें तो स्वतंत्रता के पूर्व की पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्ति ही था। स्वतंत्रता के लिए चले आंदोलन और स्वतंत्रता संग्राम में पत्रकारिता ने अहम और सार्थक भूमिका निभाई है। उस दौर में पत्रकारिता ने परे देश को एकता के सूत्र में बांधने के साथ-साथ पूरे समाज को स्वाधीनता की प्राप्ति के लक्ष्य से जोड़े रखा। आजादी के बाद निश्चित रूप से इसमें बदलाव आना ही था।

आज की पत्रकारिता : आज इंटरनेट और सूचना अधिकार ने पत्रकारिता को बहु-आयामी और अनंत बना दिया है। आज कोई भी जानकारी पलक झपकते ही प्राप्त की जा सकती है। पत्रकारिता वर्तमान समय मे पहले से अधिक सशक्त, स्वतंत्र और प्रभावकारी बन गई है। अभिव्यक्ति की आजादी और पत्रकारिता की पहुंच का उपयोग सामाजिक सरोकारों और समाज के भले के लिए हो रहा है लेकिन कभी-कभार इसका दुरुपयोग भी होने लगा है।

अब स्नैपचैट, फेसबुक, इंस्टाग्राम और ट्विटर का जमाना है ये सभी ऐसे प्लेटफॉर्म हैं जो अब पत्रकारिता की दुनिया को काफी प्रभावित कर रहे हैं तथा उसे नये तरीके से चला रहे हैं। हालांकि सोशल मीडिया जनता के लिए आसानी से उपलब्ध तो है, पर इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं कि यह सच्ची पत्रकारिता करता है। ऐसा लगता है कि अब पत्रकारिता उन लोगों के लिए एक साधन बन गई है जो विनाशकारी सोच के साथ काम करते हैं तथा अपनें काम में गपशप, घोटालें, तथा मनोरंजन जैसी चीजों का समावेश करते हैं और जो गंदगी में लिपटे रहना चहाते हैं। पत्रकारिता मुक्त होनी चाहिए।

 

परन्तु अभी भी कई ऐसे प्रकाशन और पत्रकार हैं जो लोगों के लिए सच्ची और प्रामाणिक खबरे तैयार करते हैं। उन्हें दर्शकों के रूप-रंग, उनके रहन-सहन, जाति आदि से कोई फर्क नहीं पड़ता।

 

भविष्य की पत्रकारिता : पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भी कहा जाता है। इसने लोकतंत्र में यह महत्वपूर्ण स्थान अपने आप हासिल नहीं किया है बल्कि सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति पत्रकारिता के दायित्वों के महत्व को देखते हुए समाज ने ही यह दर्जा इसे दिया है। लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब पत्रकारिता सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति अपनी सार्थक भूमिका का पालन करे। पत्रकारिता का उद्देश्य ही यह होना चाहिए कि वह प्रशासन और समाज के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी की भूमिका निर्वाह करे।

पत्रकारिता मर नहीं रही है वह अपना स्वरूप बदल रही है अब वह दूसरे आयाम में जा रही है। कल की पत्रकारिता बीत चुकी है, आज की पत्रकारिता चल रही है और विकसित हो रही है और कल की पत्रकारिता अभी बाकी है।

व्हाट्सप्प आइकान को दबा कर इस खबर को शेयर जरूर करें

Please Share This News By Pressing Whatsapp Button




स्वतंत्र और सच्ची पत्रकारिता के लिए ज़रूरी है कि वो कॉरपोरेट और राजनैतिक नियंत्रण से मुक्त हो। ऐसा तभी संभव है जब जनता आगे आए और सहयोग करे


जवाब जरूर दे 

आप अपने सहर के वर्तमान बिधायक के कार्यों से कितना संतुष्ट है ?

View Results

Loading ... Loading ...


Related Articles

Close
Close
Website Design By Bootalpha.com +91 84482 65129